एक ऐसा शहर..

अगर मैं कोई जादुगर होता हर एक पल को बुलबुला बना देता ख़त्म हो जाते कुछ लम्होंमें फिर कभी न आते यादोंमे याद आती भी तो हर याद को कश्ती बनाके पानीमे बहा देता फिर कभी ना मिलने के लिए कच्ची बुनियादोंपर खड़े घर और उनमे रहते झुठे लोग कई सावन आ गए जाने क्या…

कुछ राह चलते मुसाफ़िर..

कल रात चाँदभी अकेला था जाने किसकी राह देख रहा था लग रहा था के यह रात ऐसेही बीत जाएगी कुछ राह चलते मुसाफ़िर घर आए तब मैं यादोंमे कुछ तस्वीरें ढूँढ रहा था उनको मैंने ना रोका ना टोका जाने कहाँसे आए थे वे अपनी अपनी दास्ताँ सुनाने लगे मेरा मुकद्दर नया खेल खेल…